गुरुपूर्णिमा पर्व पर पूज्य बापूजी का पावन संदेश



गुरुपूर्णिमा पर्व पर पूज्य बापूजी का पावन संदेश

आषाढी पूर्णिमा – 2073, गुरुपूर्णिमा व्यासपूर्णिमा = 19 जूलाई 2016, प्रभात अमृत वेला, जोधपुर

मेरा और मेरे साधकों का भगवान वेदव्यासजी व भगवान लीलाशाह जी के चरणों में हृदयपूर्वक अहोभाव व प्रेम पूर्वक दंडवत् प्रणाम, शत-शत प्रणाम ।

वास्तविक लोक मांगल्य के स्वरुप को जानने वाले ऐसे सभी ब्रह्मवेताओ ब्रह्मा, विष्णू, महेश भगवती गणेश सहित अन्य सभी ब्रह्मवेताओ को प्रणाम-प्रणाम ।
सा विद्या या विमुच्यते !
वास्तविक विद्या वही जो सभी बंधनो से छुड़ाकर जिस लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं – आत्मलाभात परम लाभम् न विद्यते, आत्मज्ञान से बड़ा ज्ञान कोई नहीं – आत्म ज्ञानात् परम ज्ञानम् न विद्यते, जिस सुख से बड़ा कोई सुख नहीं – आत्मसुखात परम सुखम् न विद्यते से ऊँचे लक्ष्य की तरफ ले जाने वाले अभी इस समय जो विरले कही ब्रह्मवेत्ता उनको भी प्रणाम और उनके सत्संग सान्निध्य का लाभ लेने वाले पुण्य - आत्माओ को शिवजी सूराहते है और आशाराम भी ।
धन्यामाता पिता धन्यो गोत्रम् धन्यम् कुलोद् भवः
धन्या च वसुधा देविः यत्र स्यात् गुरुभक्ततः
ऐ आत्मज्ञान के पथिको, ऐ सत् गुरु के सत् शिष्यों मैं एसा बनू मै वैसा बनू मै तैसा बनू ये निगुरे लोगों की सोच है । बने तो अंहकार में फूलते है नही बने तो विषाद, शोक में ।
तुम हर्ष को सच्चा मत मानो, शोक को सच्चा मत मानो । संसारी सफलता को भी सच्चा न मानो, विफलता को भी सच्चा न मानो । व्यवहार में निगुरे लोगो की मान्यतानुसार व्यवहार कर लो लेकिन भीतर से जो हर समय साक्षी आत्मा परमात्मा ज्यों का त्यों है तुम्हारा मै का उदगम् स्थान उसी का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करो और उसी में अपने मिथ्या मै की उथल-पाथल क्रिया कलाप मायावी संसार में हो हो के मिटते रहते है ।
बीते हुए का शोक ज्ञानवान को नहीं होता भविष्य का भय उनको नहीं सताता वर्तमान की व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति में सत् बुद्धि नहीं होती । जन्मा है सो मरेगा, मिला है सो बिच्छडेगा । कोई भी परिस्थिति आयी है तो जायेगी । सद्बुद्धि करके उसमे उलझता नहीं । एसी वो पूरण पुरुष नारायण स्वरुप कहा है वशिष्ठजी ने ।
नानक जी ने कहा है ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावे, ब्रह्मज्ञानी को खोजे महेश्वर । कबीर जी ने कहा निराकार निजरुप हे सबका । जो चाहे साकार को साधू प्रत्यक्ष दे । एसे ब्रह्मवेता भगवान वेद व्यास, भगवान लीलाशाह एसे और भी ब्रह्मवेत्ता जो भगवदरुप में जगे है उनको मेरा और सभी महापुरुषों का संदेश समझ लो, मान लो, अपने भगवदस्वरुप को पाने में सजग रहता है और क्या । हरी ॐ ॐ..........
शांत हो जाओ । जो सुना है उसको तालू में जीभ लगाकर अपना बनाते जाओ । तुम्हारे शुभ संकल्प और भाव बापू बाहर आ जायें ये काम कर रहे है और तुम सफल हो जाओगे । बस.....

जोघपुर
19-7-16

अहमदाबाद आश्रम

गुरुपूर्णिमा


अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती ?...

अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती ?...
15 जनवरी 1958कानपुर।
सत्संग-प्रसंग पर एक जिज्ञासु ने पूज्य बापू से प्रश्न कियाः
"स्वामीजी ! कृपा करके बताएँ कि हमें अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती?"
पूज्य स्वामीजीः "बाबा ! अभ्यास में तब मजा आयेगा जब उसकी जरूरत का अनुभव करोगे।
एक बार एक सियार को खूब प्यास लगी। प्यास से परेशान होता दौड़ता-दौड़ता वह एक नदी के किनारे पर गया और जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। सियार की पानी पीने की इतनी तड़प देखकर नदी में रहने वाली एक मछली ने उससे पूछाः
'सियार मामा ! तुम्हें पानी से इतना सारा मजा क्यों आता है? मुझे तो पानी में इतना मजा नहीं आता।'
सियार ने जवाब दियाः 'मुझे पानी से इतना मजा क्यों आता है यह तुझे जानना है?'
मछली ने कहाः ''हाँ मामा!"
सियार ने तुरन्त ही मछली को गले से पकड़कर तपी हुई बालू पर फेंक दिया। मछली बेचारी पानी के बिना बहुत छटपटाने लगी, खूब परेशान हो गई और मृत्यु के एकदम निकट आ गयी। तब सियार ने उसे पुनः पानी में डाल दिया। फिर मछली से पूछाः
'क्यों? अब तुझे पानी में मजा आने का कारण समझ में आया?'
मछलीः 'हाँ, अब मुझे पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। उसके सिवाय मेरा जीना असम्भव है।'
इस प्रकार मछली की तरह जब तुम भी अभ्यास की जरूरत का अनुभव करोगे तब तुम अभ्यास के बिना रह नहीं सकोगे। रात दिन उसी में लगे रहोगे।
एक बार गुरु नानकदेव से उनकी माता ने पूछाः
'बेटा ! रात-दिन क्या बोलता रहता है?'
नानकजी ने कहाः 'माता जी ! आखां जीवां विसरे मर जाय। रात-दिन मैं अकाल पुरुष के नाम का स्मरण करता हूँ तभी तो जीवित रह सकता हूँ। यदि नहीं जपूँ तो जीना मुश्किल है। यह सब प्रभुनाम-स्मरण की कृपा है।'
इस प्रकार सत्पुरुष अपने साधना-काल में प्रभुनाम-स्मरण के अभ्यास की आवश्यकता का अनुभव करके उसके रंग में रंगे रहते हैं

--- स्रोत्र :- आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक "जीवन सौरभ" के लिया गया प्रसंग --- 

ध्यान की अवस्था में कैसे पहुंचे ?


ध्यान  की  अवस्था  में  कैसे  पहुंचे ? अगर  घर  की  परिस्थिति  उसके  अनुकूल  न  हो  तो  क्या  करे ?

पूज्य बापूजी :   




घर  की  परिस्थिति  ध्यान -भजन  के  अनुकूल  नहीं   है , इसलिए  ध्यान  न  करे ,ऐसी  बात  नहीं  है । परिस्थितियों  को  अनुकूल  बनाकर  ध्यान  नहीं  होता ,हर  परिस्थिति  में  ध्यान  का  माहौल   अथवा  सावधानी  का माहौल ,साक्षी  भाव  का माहौल ,अपने  चित्त  में  और  वातावरण  में  ज़माना  चाहिए ।   कभी -कभी  अलग  से  एकांत  में   साधना  की  जगह  पर ,आश्रम  या  एकांत  मिले ,जैसे  मौन  मंदिर  कर  लिया  8-8 दिन  के  2-4 , तो  ध्यान  का  रस  आने  से घर  के  परिस्थितियों  में  भी , वातावरण  बनाने  में  भी  बल  मिल  जायेगा । 


हम  घर  में  थे , घर  में  जो  रजो -तमो  गुण  होता  है उससे ध्यान -भजन  में  तो  बरकत  आती  नहीं , बिलकुल  सीधी  बात  है ।  किसी  संत  महापुरुष  ने  मौन  मंदिर  बनाये  थे ,तो  हम  7 दिन  उसमे  रहे  और  फिर  बड़ा  बल  मिला ।  अपने कई  आश्रमों  में  मौन  मंदिर  हैं, और  बहुत सारे  आश्रम  हमने  इसी  उद्देश्य  से  बनाये  हैं कि जो ध्यान -भजन  करना  चाहे , महीना,  15 दिन-2 महीना-4 महीना वो  अपने  एकांत  के  आश्रम  में  रहकर  कर  सकते  हैं  फिर  घर  जा  सकते  हैं ।

यदि कोई दीक्षित साधक ,आवेश में आकर ,किसी कारण के बिना, दूसरे साधक को श्राप दे तो वो फलित होगा ?


पूज्य बापूजी :  

 श्राप  देना, देने  वाले  के  लिए  खतरे  से  खाली  नहीं  है । श्राप  देना अपनी  तपस्या  नाश  करना  है  । आवेश  में  जो  श्राप  दे  देते  हैं उनके  श्राप  में  दम  भी  नहीं  होता  ।   जितना  दमदार  हो और  हमने  गलती  की  है, वो  श्राप  दे  चाहे  न  दे,  थोड़ा  सा  उसके  हृदय  में  झटका  भी  लग  गया,  हमारे  नाराजी का,  तो   हमको  हानि  हो  जाती  है और  थोड़ा  सा  हमारे   लिए  उनके  हृदय  में  सद्‍भाव भी  आ  गया, तो   हमको  बड़ा  फायदा  मिलता  है ।

केवल  हम  उनकी  दृष्टि  के  सामने  आयें और  उनके  हृदय  में  सद्‍भाव आया  तो  हम  को  बहुत  कुछ  मिल  जाता  है ।  महापुरुषों  के  हृदय  में  तो  सद्‍भाव स्वाभाविक  होता  रहता  है  लेकिन  श्राप  तो  उनको  कभी-कभार  कहीं  आता  होगा अथवा  दुर्वासा  अवतार  कोई  श्राप  देकर  भी  लोगो  को  मोड़ने  की  कोई  लीला  हुई  तो  अलग  बात  है  ।

जरा-जरा बात  में  गुस्सा  होकर  जो  श्राप  देते  है  और  दम  मारते  है तो  आप  उस  समय  थोड़े  शांत  और  निर्भीक  रहो ।

नारायण नारायण ! 
नारायण नारायण ! नारायण नारायण !